शनिवार, 5 जुलाई 2008

अहंकार

(अहंकार सब कुछ पाकर भी खुश नहीं होता और प्रेम सब कुछ देकर भी आनंदित होता है ! अहंकार और प्रेम दौनों अपनों पर ही चोट करते हैं जैसे नदी अपने विस्तार के लिए अपने ही किनारों को काट देती है जबकि नदी का अस्तित्व ही किनारों से है ! यदि किनारे न हों तो कोई भी जलराशि नदी कभी नहीं बन पाएगी , बिखर जाएगी ! जो किनारे नदी को गहराई देते हैं उन्हें ही काटकर नदी इतराती है ! इसी नदी , नाव, प्रतीक को लेकर मेरी यह कविता है ' अंहकार ' ! )
चाहता हूँ आपकी थोडी सी फुर्सत और थोड़ा सा ध्यान .....

धार कटकर पत्थरों के पार क्या जाने लगी !
वो नदी गुमनाम सी अब और इतराने लगी !!

# बाँध ने रोकी तो ऊपर उठ गई मैदान में
जब गिरी तो छेद पैदा कर दिए चट्टान में
बाँध क्या ली है जरा, झरनों की पायल पाँव में
थी लचक पहले भी अब कुछ और बल खाने लगी
वो नदी ...............

# चार नाले आ मिले हैं , इस भरी बरसात में
अब तो ये नदिया , नहीं रह पाएगी औकात में
तोड़कर अपने किनारे ही, उफनने क्या लगी ?
पाठ आज़ादी का वो , सागर को समझाने लगी
वो नदी ..............

# इन हवाओं ने, अभी तो प्रश्न छेड़े ही नहीं
वो समझती है , समंदर में थपेड़े ही नहीं
एक बाधा पार क्या करली, बिना पतवार के
नाव छोटी सी , भंवर पर ही तरस खाने लगी
वो नदी ............





© 2005 Lalit Mohan Trivedi All Rights Reserved

6 टिप्‍पणियां:

jasvir saurana ने कहा…

bhut sahi likha hai aapne. jari rhe. ati uttam.

समयचक्र ने कहा…

bahut badhiya likhate rahiye .

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत बढ़िया लिखा है.

dpkraj ने कहा…

चार नाले आ मिले हैं , इस भरी बरसात में
अब तो ये नदिया , नहीं रह पाएगी औकात में
तोड़कर अपने किनारे ही, उफनने क्या लगी ?
पाठ आज़ादी का वो , सागर को समझाने लगी
वो नदी ..............
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त्रिवेदी जी,
आपकी काव्यात्मक अनुरक्ति की प्रशंसा के लिये मेरे पास शब्द नहीं है पर अपने तरीके से यह कहने का मन करता है
बरसात में गंदे नालों का पानी लेकर
उफनती हुई चलती हैं नदियां
मुरझाये फूल हैं पर
मेकअप बना देता कलियां
अगर इतरायें नहीं तो
लोग भूल जायें उनकी गलियां
..........................
दीपक भारतदीप

शेरघाटी ने कहा…

मैं अंगारा तुम अगर तपन से प्यार करो तो आजाना !
मैं जैसा हूँ ,मुझे वैसा ही स्वीकार करो तो आजाना !!

तीनों कविता गुन गया.बोल मान से गुनगुनाते रहे .दिल को छूते रहे .
अच्छा नहीं,बहुत अच्छा एहसास कराती हैं ये पंक्तियाँ.यहाँ सिर्फ प्रेम नहीं,वर्तमान की विसंगतियां भी हैं.
आज जब जीवन से राग गायब होता जा रहा है .आप कविता में उसे संजोये हुए हैं .
सच तो ये है कि कविता मनुष्यता की संवेदन-लय है.और मनुष्यता संबंधों में ही शक्ल अख्तियार करती है.

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

इन हवाओं ने, अभी तो प्रश्न छेड़े ही नहीं
वो समझती है , समंदर में थपेड़े ही नहीं
एक बाधा पार क्या करली, बिना पतवार के
नाव छोटी सी , भंवर पर ही तरस खाने लगी

bahut khub..!