सोमवार, 11 अगस्त 2008

साहित्यिक लफ्फाजी ...........( व्यंग )

लेखन से भी एक बड़ा गुण है ' लफ्फाजी ' किसी तरह की बाजी न होते हुए भी इसके अंत में 'जी 'लगा हुआ है जो इसके सम्माननीय होने का प्रमाण है !जो शब्द ख़ुद ही सम्माननीय हो तो उसे धारण करने वाला तो परम सम्माननीय स्वतःही हो जाता है !जैसे 'महागप्प' को साहित्य में' परिकल्पना 'कहते है,उसी प्रकार इस आदरणीय 'लफ्फाजी ' को भी बुद्धिजीवी 'सम सामयिक समालोचना 'कहते हैं !चूँकि बुद्धिजीवी में भी ' जी ' लगा हुआ है तो मुझे लगा कि इन दोनों ' जी ' धारियों में कहीं न कहीं अटूट सम्बन्ध अवश्य है !साहित्य से खिलवाड़ मेरा भी प्रिय शौक रहा है !इसी शगल में मुझे बाबा तुलसीदास की एक पंक्ति याद आती है " अब लों नसानी अब न नसैहों "और यह उन्होंने अपने मूल्यवान लेखन के बहुत बाद में लिखा है !बहुत बाद में समझ में आया होगा कि लेखन से बड़ा नसाना और क्या होसकता है ! लिहाज़ा मैंने भी नसाना छोड़कर बाज़ारधर्मी साहित्यिक धुरंधरों से संपर्क साधना शुरू कर दिया !धीरे धीरे मेहनत रंग लाने लगी ! किसी भी धनवान परन्तु सड़े से कवि की सुंदर छपी पुस्तकों पर समालोचनात्मक गोष्ठी आयोजित करने में मुझे धीरे धीरे महारत हासिल होने लगी !अच्छी हैसियत वाले धनवान और लचर पचर कवि के घर संपर्क लोलुप बुद्धिजीविओं की अदृश्य लार मुझे टपकती हुई साफ दिख जाती थी ! लक्ष्मी और सरस्वती के संगम का पंडा बनकर में भी इन स्वयम्भू साहित्यकारों की पूँछ पकड़कर वैतरणी पार कर रहा था !मेरे हाथ दो थे परन्तु पूँछों की कोई कमी नहीं थी
ऐसी ही एक पुँछ की समालोचनात्मक साहित्यिक कार्यशाला में जाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ ,यह भी साहित्य का एक दुर्भाग्य ही था कि मुझे भी समालोचना के योग्य समझा गया !हालाँकि मैं निंदा रस में पूर्ण माहिर हूँ और आडिट करते करते मुझे सिर्फ़ दूसरों के दोष देखने की ही आदत है फ़िर भी इस खूबी की तुलना साहित्य से तो नही की जा सकती है ! चूँकि संयोजक महोदय को भी मैं अपनी विशिष्ट चिंतन गोष्ठियों में अध्यक्ष बनाकर उपकृत करता रहा हूँ ,लिहाज़ा उन्होंने भी मेरी छिद्रान्वेषी प्रब्रत्ति को समालोचना के लिए उपयुक्त समझ कर हिन्दी पर उपकार करने का फ़ैसला कर ही लिया !श्री टट्टू जी के कविता संग्रह के विमोचन पर गोष्ठी का विषय रखा गया "श्री टट्टू साहित्य - सम सामयिकता की कसौटी पर "और उस पर मुझसे अपने विचार व्यक्त करने का आग्रह किया गया ,साहित्य में मौका देने को आग्रह कहा जाता है !ऐसे अटपटे विषय पर बोलने में मुझे डर भी लग रहा था ,परन्तु बुद्धिजीवी बनने का लोभ भी मैं संवरण नहीं कर पा रहा था !डर था की कहीं मेरी पोल न खुल जाय ,क्योंकि जबसे लिखी जा रही है तब से आज तक नई कविता और अकविता मेरे सर के ऊपर ही रही है और 'फुनगी पर गौरैया ' , ' एक टुकडा धुप ', 'बिल्ली की मूंछे ' आदि आदि से मैं अभी तक कोई अर्थ नहीं
निकाल पाया हूँ फ़िर भी साहित्यकार बना बैठा हूँ !अगर मैंने भी इसी तरह की बातें नहीं की तो यहाँ मेरे बुद्धिजीवी होने पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाएगा !बड़े बड़े प्रोफेसर , विचारक , चिन्तक मुझे हेयदृष्टि से देखेंगे किदेखो कैसा मुर्ख है जो " डंडे पर समंदर " जैसी छुद्र चीज भी नहीं समझ पा रहा है !क्या खाक हिन्दी का लेखक है !इतनी सीधी साधी भाषा लिखकर भी कोई कालजयी बनता है भला !उनकी तिर्यक मुस्कानों में व्यंग उभर आएगा और मेरी दुकानदारी भी खिसक सकती है ,लिहाजा काफी सोच समझकर लगभग मनहूस मुद्रा बनाकर मैंने चश्मा ठीक किया और बोलना शुरू कर दिया ......"परम आदरणीय भाई परमानन्द जी ने मुझे श्री टट्टू जी के कविता संग्रह पर विचार व्यक्त करने का जो आदेश दिया है वह शिरोधार्य है परन्तु वस्तुपरक सोच की कार्यशाला में जाने के कारण मुझे अधिक समय नहीं मिल पाया ( जैसे समय मिला होता तो मैं बहुत बड़ा तीर मार लेता )इसलिए संक्षेप में ही अपनी बात कहूँगा !श्री टट्टू जी बधाई के पात्र हैं कि ऐसे कठिन समय में जबकि हिन्दी साहित्य एक गहन सुरंग से गुजर रहा है ' त्यक्तीय-मंजूषा ' लिखकर हिन्दी साहित्य के समसामयिक मानदंडों को छुआ है ! बिम्बों की अभिव्यंजना का अमूर्त रूप इस व्यंजना में मूर्त ही नहीं हुआ वल्कि लेखन में अन्वेशनात्मकता के स्तर पर भी मौलिक रूप से प्रकट हुआ है ! स्फूर्तता का प्रवाह कालातीत लेखन को समसामयिकता का दर्जा देता है !समय की कठिन खुरदुरी ज़मीन से जुडा (प्रगतिशील दिखना भी ज़रूरी है ) तथा प्राचीन से अर्वाचीन और अर्वाचीन से प्राचीन तक सरापा ( बीच बीच में उर्दू शब्द डालने से आदमी सेक्यूलर समझा जाता है ) चिंतन सांस्कृतिक चेतना का निर्वाह सहज ही कर जाता है !व्यक्तिपरकता से परे समष्टिगत अनुभूतियों और आम आदमी की सोच को abstract art के हाशिये पर डालकर भी नवोन्मेषी आग्रह को अनावृत कर देती है यहअकविता ..............................अगड़म बगड़म और न जाने क्या क्या मैं बोलता गया ! कवि महोदय ने क्या लिखा यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया है और उस पर अन्य समालोचक बुद्धिजीविओं ने क्या बोला यह भी मैं नहीं समझ सका हूँ !सबसे आश्चर्य की बात तो यह है किमैंने ख़ुद क्या बोला यह भी मेरी समझ में नहीं आरहा है ,हलाँकि मेरे वक्तव्य कि बहुत तारीफ हो रही है ,प्रेस में भी नोट जा रहा है !मेरा निवेदन है कि अगर आपकी समझ में मेरा वक्तव्य कुछ आया हो तो कृपया सूचित करें ,आभारी रहूँगा !परन्तु ध्यान रहे कि आप भी बुद्धिजीवी हैं !




2 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

सत्य वचन!

pallavi trivedi ने कहा…

अरे वाह...आपकी कलम की धार बहुत प्रवाह पूर्ण है! एकदम नदी की तरह बल खाती हुई सागर में जाकर मिलती है और पूर्णता को प्राप्त होती है! कैसी रही हमारी समालोचना...? आपसे ही सीख रहे हैं!लेकिन पहली बार आपका व्यंग पढ़ा और सचमुच कायल हो गयी!
और आपने मेरी ग़ज़ल लेखन में जो कमियाँ बताई हैं मैं आपको धन्यवाद देती हूँ! कमियाँ नहीं मालूम होंगी तो आगे कैसे सीखेंगे! आगे से ध्यान रखूंगी!