( रसिया )
कैसौ आयौ नवल बसंत सखी री मोरे आंगन में !
पोर पोर में आस , प्यास भर गयौ उसाँसन में !!
धरा नें ऐसौ करौ सिंगार !
चुनर सतरंगी , पचलड़ हार !
रसीले नैनन में कचनार !
अंग अंग अभिसार झरै, ठसकौरी दुलहन में ....
कैसौ आयौ ..............
उडे गालन पै लाल अबीर !
हो गई पायलिया मंजीर !
छनकती फिरै जमुन के तीर !
सखि मुंडेर पै कागा बोलै, कोयलिया मन में .
कैसो आयौ...............
चटख रह्यौ कली कली कौ अंग !
फली की देह भई मिरदंग !
नवल तन हूक और हुरदंग !
पिया संदेसौ पढे ननदिया काजर कोरन में ....
कैसो आयौ............
चढौ ऐसो टेसू कौ रंग !
जोगिया बन गए पिया मलंग !
बिलम गई फाग आग के संग !
मैं वासंती चुनर निहारत रह गई दरपन में ....
कैसो आयौ ..........
© 1992 Lalit Mohan Trivedi All Rights Reserved
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7 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लगा ललित मोहन जी, इस पारम्परिक रसिया को सुनकर
क्या आप कभी किसी रसिया अखाड़े से जुड़े रहे हैं?
चढौ ऐसो टेसू कौ रंग !
जोगिया बन गए पिया मलंग !
बिलम गई फाग आग के संग !..waah ..kya baat hai..shringaar
लोकगीतों का अपना रस है, अपना आनन्द है।
ललित जी आपके रसिया ने तो बस फागुन का सही आनंद दे दिया .
उडे गालन पै लाल अबीर !
हो गई पायलिया मंजीर !
छनकती फिरै जमुन के तीर !
सुंदर ....
अंग अंग अभिसार झरे थस्कौरी दुल्हन ... क्या बात है भाईसाहब ,आज भी रस की नदियाँ बहापाने में आप सक्षम है मेरी बहुत बहुत बधाई ,फ़िर आपकी टिप्पणी ग़ज़ब ही है .मानना ही पड़ता है हरबार आपकी कलम का जादू
भूपेन्द्र
are waah...kya sundar lokgeet hai.kisi purani film ka gana sa...
आदरणीय मैथिली गुप्त जी ! मैं साहित्य के किसी भी अखाडे से जुड़ा हुआ नहीं हूँ और न ही ब्लॉग की तकनीकियों में पारंगत हूँ ! स्वान्त:सुखाय लिखता हूँ ,आपको अच्छा लगा बस यही पूँजी है मेरी ,बहुत बहुत धन्यवाद !
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