शनिवार, 15 जनवरी 2011

अलविदा .....कभी हम मीत रहे

---- गीत ----



थमना तुमको स्वीकार था , रफ़्तार रास मुझे आई !
तुमने चाहा विस्तार और , मैंने चाही थी गहराई !!



उड़ने की चाह थी मुझको , तुम रहे डूबने से डरते !
धरती ही अपने बीच थी , बतलाओ पाँव कहाँ धरते !
पानी पर लिक्खे समझौतों की, उम्र भला कितनी होती ,
कैसे निभ पाती साथ साथ , मेरी जिद तेरी निठुराई !


तुमने चाहा विस्तार.....................................


पाकर उन्मुक्त गगन को भी , तुम खुश हो सके थे मन में !
अपनी पहचान गंवाकर भी , हम आनंदित थे बंधन में !
इसको खुद्दारी कहूँ या कि , अभिमान मगर सच तो ये है ,
तुम कच्चे धागे ला सके , ज़ंजीर बांध मुझे पाई !!


तुमने चाहा विस्तार ....................................................


मैं दोष तुम्हें भी कैसे दूँ , सब अपनी धुन के मतवाले
तुम खन खन खन के अनुयायी , हम छन छन छूम छनन वाले !
इसलिए रेत और चरण चिन्ह , करें विसर्जित लहरों में ,
जिद में तेरे भी जले पंख , मैं भी भंवर से बच पाई !


तुमने चाहा विस्तार...............................................



















7 टिप्‍पणियां:

राजेश शर्मा ने कहा…

त्रिवेदी जी,आपका जीवन दर्शन कमाल का है.आप जिस संतुलन की बात करते हें वह दुर्लभ है.
आपकी रचना श्रेष्ठतम है.यह सच है कि उन्मुक्त गगन पाकर भी कुछ लोग खुश नहीं हें
कुछ लोग बंधन में भी आनंदित हैं .आपसे ऐसे ही गीतों की अपेक्षा है.
बधाई,बधाई,बधाई .......

नीरज गोस्वामी ने कहा…

इस विलक्षण रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें...

नीरज

रंजना ने कहा…

नेट की अस्तव्यस्तता पर क्षोभ आ रहा है जिसने इतनी सुन्दर रचना पढने से मुझे इतने दिन वंचित रखा..
kya kahun रचना पर...
adwiteey !!!
bhaavon ko aisa सुन्दर pravaahmayi shabd bandh diya hai aapne ki yah pravahit ho seedhe paathak ke man tak pahunchne me samarth ho gaya है...

पारुल "पुखराज" ने कहा…

जिद में तेरे भी जले पंख , मैं भी न भंवर से बच पाई…

Dinesh pareek ने कहा…

आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी

कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
http://vangaydinesh.blogspot.com/
http://dineshsgccpl.blogspot.com/

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

मन कुछ उदास था... कुछ अच्छा सा पढ़ने के लिये निकली तो इधर आ गई और जैसे मेरे मन की ही लिखने को लिखा हो ये.........

जिद में तेरे भी जले पंख , मैं भी न भंवर से बच पाई !

Shehmanjari ने कहा…

वाह ललित जी इतने वर्षों के बाद आपकी रचनाएं पढ़ने को मिली हैं इतना अच्छा लिखते हैं यह तो मालूम ही नहीं था गजब जा लेखन है हार्दिक बधाई और अभिनंदन यह विद्या मंदिर के फेस बुक ग्रुप के कारण संभव हुआ है