खुश्बुओं को जहाँ तुम चले हार के !
थे वहीं पर बहुत पेड़ कचनार के !!
आरहा है घटाओं का मौसम मगर !
झेल थोड़े से तेवर भी अंगार के !!
इक थपेडे ने आकर कहा नाव से !
कितने थोथे भरोसे हैं पतवार के !!
डूबना ही मुकद्दर में जब तय हुआ !
देखलें हौसले हम भी मझधार के !!
फेर लेते हैं नज़रें मुझे देखकर !
क्या अनौखे हैं अंदाज़ दीदार के !!
आप जिनको मशालें समझते रहे !
हाथ में झुनझुने थे पुरस्कार के !!
देखते हो सदा क्यों कड़क बिजलियाँ ?
देखना सीख झोंके भी बौछार के !!
सर के बदले में मंहगी नहीं ज़िंदगी !
तुमको आते नहीं ढंग व्यापार के !!
मंजिलें हैं कहाँ ये पता ही नहीं !
सिर्फ़ आदी हुए लोग रफ़्तार के !!
© 2002 Lalit Mohan Trivedi All Rights Reserved
शनिवार, 19 जुलाई 2008
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8 टिप्पणियां:
मंजिलें हैं कहाँ ये पता ही नहीं !
सिर्फ़ आदी हुए लोग रफ़्तार के
बेहतरीन है
बहुत उम्दा:
आरहा है घटाओं का मौसम मगर !
झेल थोड़े से तेवर भी अंगार के !!
सर के बदले में मंहगी नहीं ज़िंदगी !
तुमको आते नहीं ढंग व्यापार के !!
मंजिलें हैं कहाँ ये पता ही नहीं !
सिर्फ़ आदी हुए लोग रफ़्तार के !!
बहुत बेहतरीन ग़ज़ल है...ये शेर ख़ास पसंद आये!
सर के बदले में मंहगी नहीं ज़िंदगी !
तुमको आते नहीं ढंग व्यापार के !!
bahut khoob achha likhte hain aap
bahut sundar or damdaar gazal...
क्या बात है त्रिवेदी जी,
आप गीतें लिखें या गजल! लाजवाब होती हैं आपकी रचना
दीपक भारतदीप
क्या कहना है जनाब! इसे शायरी कहते हैं.
बस बहता गया .
फेर लेते हैं नज़रें मुझे देखकर !
क्या अनौखे हैं अंदाज़ दीदार के !!
bahot hi behtarin rachana hai umdda ........badhai......
main bhi intazar me hun aapke comments ka ......
regards
Arsh
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